सब खेलो में सबसे भव्य खेल फुटबॉल दूर-दूर तक अपने भव्य मंच के लिए जाना जाता है। लिंग, जाति, पंथ, वित्तीय और सामाजिक प्रतिष्ठा की परवाह किए बिना असंख्य अन्य कारको के साथ ये खेल सभी के लिए है।
फुटबॉल और भारत का रिशता यहाँ के दरारों से आगे बढ़कर है। भारत में फुटबॉल संघर्ष और साहस का प्रदर्शक रहा है जो वास्तव में विश्वास करने के लिए देखने की ज़रुरत है।
जिस पल से अंग्रेज़ो ने इस खेल का उत्पन्न फुलाये हुए चमड़े के साथ अपने पैरो से खेलकर किया, तब से यह खेल भारत के बंगाल की आँखों में आ बसा है।
हालांकि, देश में खेल के देख-भाल न होने और प्रशासनिक सहायता की कमी होने के कारण, अनजाने में, इसके क्रमिक पतन का इतिहास रचा गया। इसका सबसे ताज़ा उदहारण यूनाइटेड अरब एमिरेट्स से हार की है।
इतिहास के कई कारक भारत के फुटबॉल के माहौल में इस तरह के भारी बदलाव के कारण है।
भारत में फुटबॉल और श्वेत वर्चस्व का इतिहास
हमने ये वाक्यांश काफी बार सुना है, “सब कुछ राजनीति है।” यह वाक्यांश एकान्त सत्य के रूप में रहता है और आने वाले पीढ़ियों के लिए एकान्त सत्य के रूप में जीवित रहेगा। यह मुहावरा इस विषय के लिए महत्त्वपूर्ण है क्योंकि फुटबॉल को उस तरह राजनीतिकरण नहीं किया जा सका जैसे की क्रिकेट को किया गया था।
फुटबॉल, क्रिकेट की तरह, भारत में अंग्रेजों द्वारा पेश किया गया था। भारतीय आबादी का एक बड़ा हिस्सा इस खेल से आकर्षित हुआ क्योंकि इसे खेलने के लिए किसी बुनियादी ढाँचे की आवश्यकता नहीं थी। बस एक गेंद और दो अस्थायी गोलपोस्ट के साथ कोई भी खेल सकता था।
भारत में फुटबॉल के जनक नागेंद्र प्रसाद सर्भादिकारी के आने से, खेल की संक्रामक सनक बंगाल में महसूस की जा रही थी क्योंकि घरेलू क्लब ब्रिटिश क्लबों की ताकतवर संग्रह को हराने के लिए तैयार थे।
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सोवाबाजार राजबाड़ी पर आधारित सोवाबाजार फुटबॉल क्लब, सर्भादिकारी द्वारा स्थापित होने के बाद, सामाजिक मोचन और क्रांति में सबसे आगे आया था। सोवाबाजार क्लब के गठन का बहुत बड़ा कारण वेलिंगटन क्लब में एक निश्चित कुम्हार के बेटे के खिलाफ उच्च-मध्यम वर्ग के समाज द्वारा भेदभाव की एक घटना थी।
इस घटना के बाद क्लब को भंग कर दिया गया था। 500 से अधिक सदस्य सोवाबाजार क्लब में शामिल हो गए और वे ब्रिटिश राज के रूप में दुर्जेय विरोधियों के खिलाफ प्रतिस्पर्धा करने लगे।
इस तरह, यह रवैया भारतीय फुटबॉल टीम को देश और विदेशों में दूर-दूर तक ले गया। मोहन बागान की अमर कहानी आज भी वैभव की उसी भावना के साथ सुनाई जाती है जैसा कि पहले के दिनो में,और उनकी महिमा अभी भी अप्रकाशित है।
हालाँकि यह प्रश्न उठता है की क्यों फुटबॉल को क्रिकेट जितना उचित सम्मान नहीं मिला। क्रिकेट प्रशंसकों की प्रभावी परिमाण देश भर में, दूर-दूर तक फैली हुई है, जबकि अन्य खेल बहुत पीछे हैं। फुटबॉल का दायरा, हालांकि बढ़ता जा रहा है, फिर भी काफी पीछे है। इसका श्रेय खेल के कथित सांस्कृतिक और सामाजिक वर्चस्व के प्रभावों को दिया गया है।
अंग्रेजों द्वारा भारत में शुरू किए गए ऐसे परिमाण का क्रिकेट पहला खेल था। सज्जनों द्वारा सज्जनों के लिए खेल होने का उनका चित्रण प्रभावी रूप से एक आदर्श के विचार को बेच रहा था कि यह खेल सज्जनों के लिए है।
इम्मोर्टल एलेवेन अपने नंगे पैरो के साथ भारतीय फुटबॉल कि शक्ति बरकरार नहीं रख सके।
भारतीय फुटबॉल का हंस गीत
पिछले कुछ दशकों से, भारत में फुटबॉल अभूतपूर्व गतिरोध के एक चरण में पहुंच गया है। भारतीय राष्ट्रीय टीम में किंवदंतियों के प्रवेश और निकास के साथ, दिखाने के लिए बहुत कम है।
भाईचुंग भूटिया, चुन्नी गांगुली, सभी ने इस खेल के लिए श्रद्धा दिखाई, मैनचेस्टर यूनाइटेड ने भूटिया को टीम के लिए खेलने का आग्रह किया। फिर भी, राष्ट्रीय फुटबॉल टीम के पास दिखाने के लिए बहुत कम था।
भारत में आयोजित U-17 विश्व कप एक उदाहरण है जहां भारत ने शीर्ष यूरोपीय टीमों के खिलाफ प्रतिस्पर्धा की थी। कुछ खिलाड़ियों के व्यक्तिगत खेल अभूतपूर्व थे, कोमल ठाटाल ने खेल के प्रत्येक गतिशील को नियंत्रित किया। फिर भी, टीम को नुकसान उठाना पड़ा।
ये हर समय देखा गया है कि भारत व्यक्तिगत खेलो में बहुत अच्छा खेलता है। भारत क्रिकेट में अच्छा है क्योकि आख़िरकार यह खेल बल्लेबाज़ और गेंदबाज़ के बीच ही होता है। दूसरी ओर, फुटबॉल एक टीम खेल है जिसमे टीम की रणनीति की आवश्यकता होती है। व्यक्तिगत कौशल केवल एक हद तक ही साथ दे सकता है।
हालांकि, सभी बातों पर विचार करने के बाद, कतर से एक शीर्ष पक्ष के खिलाफ एफसी गोवा की हालिया टाई, उन खिलाड़ियों के साथ जो कभी ला लीगा दिग्गज सेविला के लिए खेले थे, कोई छोटी बात नहीं है। यह इस बात के प्रमाण के रूप में है कि भारतीय फुटबॉल उठेगा और छत को तोड़कर उठेगा। केवल उन्हें उनका रवैया रोकता है क्योंकि अधिकाँश व्यक्तिगत अपने खुद के गौरव के लिए खेलते है।
यह केवल उन सभी के भव्य मंच के लिए खुद को तैयार करने के लिए उपयुक्त है। और, जैसा कि तथ्य है, एक खेल सरकारी समर्थन के बिना कुछ भी नहीं है, और दो महीने तक चलने वाली फुटबॉल लीग केवल इतना ही कर सकती है।
शायद मुख्य लीग के रूप में आई-लीग को वापस लाने का समय आ गया है, नहीं?
Image Source: Google Images
Sources: ANI, Football Paradise, The Asian Age
Written originally in English by: Kushan Niyogi
Translated in Hindi by: @DamaniPragya
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