ब्रेकफास्ट बैबल ईडी का अपना छोटा सा स्थान है जहां हम विचारों पर चर्चा करने के लिए इकट्ठा होते हैं। हम चीजों को भी जज करते हैं। यदा यदा। हमेशा|
हर लेखक इस बात से जरूर रिलेट कर सकता है कि जब वो अपनी पुरानी रचना दोबारा पढ़ते हैं, तो वो दो भावनाओं के बीच में झूलते हैं – “अरे, ये मैंने लिखा था?” (प्रशंसात्मक) और “अरे, ये मैंने लिखा था?” (तिरस्कार पूर्ण)।
अगर ये आपके साथ बार-बार होता है, तो ये एक ‘हमारा मोमेंट’ है। यूथ मीडिया प्लेटफॉर्म, ईडी टाइम्स ने मुझे बतौर लेखक बहुत ग्रो करने में मदद की है। अब मैं अपने विचारों को बेहतर तरीके से व्यक्त कर पाती हूं, उन्हें अधिक व्यवस्थित तरीके से प्रस्तुत कर पाती हूं और एक लेखक के रूप में पूरी शिद्दत से आगे बढ़ पाती हूं। लेकिन, आत्म-संदेह हमसे कभी दूर नहीं होता, है ना?
जब आप कुछ लिख रहे होते हैं, जैसे कि एक आर्टिकल, तो उस विषय पर जितनी जानकारी हो सकती है, उसे जोड़ने की कोशिश में कोई कसर नहीं छोड़ते। जब मैंने इसकी शुरुआत की थी, तो मेरे लैपटॉप पर एक साथ हजारों टैब्स खुले रहते थे, लेकिन अंत में मैं पूरी तरह से उलझ जाती थी, समझ नहीं आता था कि क्या लिखूं और किस भरोसेमंद स्रोत से लिखूं।
समय के साथ, मैंने इस कौशल को विकसित किया कि कैसे कई स्रोतों से जानकारी लेकर, सभी महत्वपूर्ण बिंदुओं को जोड़कर, ऑडियंस के लिए एक ही जगह पर पूरी जानकारी प्रस्तुत करूं। बाद में जब मैं अपने आर्टिकल्स को दोबारा पढ़ती हूं, तो वो बहुत संतुष्टि देता है। मैं किसी भी तरह से घमंड नहीं कर रही हूं, लेकिन कभी-कभी ऐसा लगता है, “वाह यार, ये तो सच में एक कला है।”
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लेकिन ऐसी चीजें कम ही होती हैं। क्योंकि अधिकतर समय, जब आप अपनी पुरानी लिखी हुई चीजें दोबारा पढ़ते हैं, तो वो आपको बहुत अजीब लगती हैं। जैसे कि वो पर्सनल डायरी लें जो आपने अपने बचपन में लिखी थी।
एक बार मेरे भाई ने वो डायरी ढूंढ ली और सबके सामने जोर-जोर से पढ़ने लगा। शर्मिंदगी किसे कहते हैं, वो मैंने उस दिन महसूस किया था। उस वक्त मुझे ऐसा लगा कि मैं हमेशा के लिए अंटार्कटिका जाकर बस जाऊं या दार्जिलिंग की पहाड़ियों में छिपकर संन्यास ले लूं।
पहली ही पंक्ति थी, “डियर डायरी, मम्मा ने आज मुझे जावी (मेरी कज़िन, जिसे मम्मा मुझसे बदल सकती हैं) से कंपेयर किया। मुझे पक्का लगता है कि वो मेरी असली मां नहीं हैं। लेकिन फिर उन्होंने मेरे बर्थडे पर मुझे गोल्ड की ईयरिंग्स क्यों गिफ्ट कीं? ओह, मेरी असली मां ने उन्हें बस मुझे पालने के लिए पैसे दिए हैं। अब से मैं इस महिला को ‘आंटी’ कहूंगी।” और फिर जब उन्होंने मुझे प्यार से सुलाया, तो वो वापस मेरी ‘मम्मा’ बन गईं। (प्लीज मुझे जज मत करना, मैं सिर्फ दस साल की थी।)
हम अक्सर एक निश्चित तरीके से सोचते हैं, खासकर जब हमारे इमोशन्स अपने चरम पर होते हैं। हम वही लिखते हैं जो हम महसूस करते हैं, और जब बाद में उन लिखावटों को पढ़ते हैं, तो या तो जोर से हंस पड़ते हैं या महसूस करते हैं कि उस वक्त हम पूरे सच को नहीं देख पाए थे।
मेरे सभी साथी लेखकों के लिए, उम्मीद है कि आप भी इन भावनाओं से जुड़ाव महसूस करते होंगे। कमेंट्स में अपने अनुभव साझा करने के लिए स्वतंत्र महसूस करें।
Sources: Bloggers’ own opinion
Originally written in English by: Unusha Ahmad
Translated in Hindi by Pragya Damani
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