Home Hindi क्या होता अगर एक ज्यूरी ने अयोध्या विवाद सुना होता?

क्या होता अगर एक ज्यूरी ने अयोध्या विवाद सुना होता?

यदि आप नियमित रूप से समाचार पत्र पढ़ते हैं या फिर समाचार देखते हैं, तो आप राम जन्मभूमि – बाबरी मस्जिद विवाद से अच्छी तरह वाकिफ होंगे, और यदि आप ऐसा नहीं करते हैं, तो भी आपने प्रसिद्ध गीत “राम लला आयेंगे, मंदिर बनयेंगे” ज़रूर सुना होगा।

जैसा कि हम सभी जानते हैं कि राम जन्मभूमि – बाबरी मस्जिद विवाद भारत के सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष है और शीर्ष अदालत ने संकेत दिया है कि वे 18 अक्टूबर 2019 तक कार्यवाही को विराम दे देंगे ।

बहरहाल, इस मामले में निर्णय भारत के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई के सेवानिवृत्त होने से पहले आने की संभावना है।

मीडिया द्वारा पहले से ही जो कुछ भी बताया गया है, उसके अलावा इसे देखने का एक और परिप्रेक्ष्य है। यह कानूनी दृष्टिकोण है जो हमें उस समय तक वापस ले जाता है जब भारत में ज्यूरी प्रणाली प्रचलित थी और हमें आश्चर्य होता है कि अगर राम मंदिर विवाद को ज्यूरी द्वारा सुना गया होता  तो क्या होता।

राम मंदिर – बाबरी मस्जिद विवाद क्या है?

अयोध्या विवाद चंद रोज़ पुराना नहीं है। यह उस भूमि पर सदियों पुराना विवाद है जहां बाबरी मस्जिद विध्वंस से पहले खड़ी थी। यहाँ, विवाद स्वामित्व या अधिकार से परे है और इसमें हिंदू और मुस्लिम दोनों की धार्मिक मान्यताएँ शामिल हैं।

हिंदुओं का दावा है कि विवादित भूमि हिंदू देवता भगवान राम का जन्म स्थल है। मुस्लिम समुदाय इस तथ्य का खंडन करता है।

भारत में ज्यूरी प्रणाली

ज्यूरी प्रणाली वह है जहां शपथ लेने वाले व्यक्तियों का एक समूह सबूतों के आधार पर मामला तय करने के लिए एक साथ बैठता है। ऐसे मामलों में न्यायाधीश यह सुनिश्चित करते हैं कि कोई कानूनी बिंदु छूट न जाए और मुकदमा संबंधित क़ानून में उल्लिखित प्रक्रिया के अनुसार हो।

भारत में ज्यूरी सिस्टम कुख्यात नानावटी मामले से पहले तक प्रचलित था (हाँ वह ही जिस पर अक्षय कुमार की फिल्म रुस्तम आधारित है)। इस मामले में, नौसेना कमांडर के.एम. नानावती को ज्यूरी और निर्णायक मंडल द्वारा, सभी को आश्चर्यचकित करते हुए, बरी कर दिया था ।

इस मामले के बाद, भारत में ज्यूरी प्रणाली बड़े पैमाने पर समाप्त हो गई और केवल पारसी वैवाहिक विवादों तक सीमित हो गई।


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अयोध्या मामले में ज्यूरी ट्रायल

भारत में ज्यूरी प्रणाली के खत्म होने के पीछे का कारण यह था कि नानावती मामले में फैसला जनता की राय पर ज़्यादा आधारित था और कानूनी और न्यायिक पहलुओं पर कम।

जब ज्यूरी किसी मामले पर फैसला देती है तो वह काफी हद तक कानूनी पेचीदगियों से इतर, जनता की राय पर आधारित होता है।

अयोध्या मामले के संबंध में, बीजेपी अपने वोट बैंक का एक हिस्सा प्रमुखता से हिंदूवादी विचारधारा के लोगों से प्राप्त करती है, जो उसकी राम मंदिर को लेकर दृण निश्चा से प्रभावित हैं। 2014 और 2019 के आम चुनावों में एनडीए द्वारा प्राप्त प्रचंड बहुमत के लिए यही जन समर्थन जिम्मेदार है।

अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के पक्ष में जनता की भावना स्पष्ट है और इसे नकारा नहीं जा सकता, वह भी भाजपा के प्रति भारी समर्थन के बाद।

अगर ज्यूरी ने अयोध्या मसले को सुना होता, तो निर्णय लेने के दौरान जनमत ज्यूरी सदस्यों को प्रभावित करता।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि न्याय सुनिश्चित करने के लिए हिंदू और मुस्लिम दोनों पक्षों का समान प्रतिनिधित्व होता। फिर भी, ज्यूरी के फैसले का झुकाव बड़े पैमाने पर जनता की राय के हिसाब से होता और कहीं न कहीं कानूनी प्रावधानों की बलि दी जाती।

हालाँकि, चूंकि ज्यूरी सिस्टम अब भारत में नहीं है, इसलिए हमें शीर्ष अदालत की माननीय पीठ के फैसले का इंतजार करना होगा।


Image Source: Google Images

Source: The Financial ExpressThe GuardianWired

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